मार्च 2021 से एएसआई विश्व वंदनीय रामसेतु का वैज्ञानिक अध्ययन करने जा रहा है। यह जांच रामायण काल का निर्धारण करने के साथ ही इस पर प्रकाश डालेगी कि यह प्रभु राम के निर्देश पर बनने वाला वही पुल है जिससे वानर सेना ने सागर पार कर रावण की लंका ध्वस्त कर दी थी
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भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) भारत और श्रीलंका के बीच स्थित पौराणिक धरोहर रामसेतु की पहली वैज्ञानिक जांच के लिए तैयार हो रहा है। मान्यता है कि इसी सेतु से राम की सेना माता सीता को बचाने के लिए समुद्र पार रावण के साम्राज्य तक पहुंची थी। यह सेतु प्रवाल और उथले जल की 48 किमी. लंबी शृंखला है; विद्वानों का मानना है कि यह एक प्राकृतिक संरचना है। एएसआई का मानना है कि पानी के नीचे की ‘संरचना का अध्ययन रामायण काल की आयु निर्धारित करने में मदद करेगा।’ यह अध्ययन सीएसआईआर-नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ ओशनोग्राफी (एनआईओ), गोवा द्वारा किया जाएगा, जो कि भूगर्भीय काल के लिए रेडियोमेट्रिक और थर्मो ल्यूमिनेसेंस डेटिंग तकनीेक का उपयोग करता है।
एनआईओ के निदेशक प्रो. सुनील कुमार सिंह के अनुसार, मार्च 2021 में शुरू होने जा रही इस तीन-वर्षीय जांच का उद्देश्य यह निर्धारित करना है कि क्या रामसेतु मानव निर्मित है और वैज्ञानिक दृष्टि से इसकी आयु क्या है। ये परिणाम सत्यापित किए जाएंगे और रामायण तथा अन्य शास्त्रों में दी गई जानकारी के साथ इनका मेल कराया जाएगा। तलछट की आयु कार्बन डेटिंग तकनीक से निर्धारित की जाएगी।
इस जांच में उक्त स्थल से सामग्री की संरचना, सतह के नीचे की संरचना और यदि वहां अवशेष या कलाकृतियां हुर्इं तो उनकी खुदाई जैसी वैज्ञानिक तकनीकों को शामिल किया जाएगा। पानी के नीचे की फोटोग्राफी क्षेत्र में किसी भी आबादी के अवशेषों के निर्धारण में मदद करेगी। बाद में, वैज्ञानिक इस संरचना में छेद करके नमूने एकत्र करेंगे और प्रयोगशाला में उनका अध्ययन करेंगे। प्रो सिंह कहते हैं कि कुछ शास्त्रों में सेतु के साथ लकड़ी के शहतीरों के उपयोग का उल्लेख है। यदि वे अस्तित्व में होते, तो अब तक जीवाश्म बन चुके होते, और टीम उन्हें खोज लेती। चूंकि सेतु के चारों ओर समुद्र उथला है, बमुश्किल तीन—चार मीटर गहरा, इसलिए इस संरचना का अध्ययन करना आसान होना चाहिए। क्षेत्र का उथलापन ही वह कारण है कि बड़े आधुनिक जहाजों को रास्ता देने के लिए क्षेत्र में तली से खुदाई नहीं की जाती।
भूवैज्ञानिक तथ्य
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) के पूर्व निदेशक डॉ. बद्रीनारायणन ने कुछ साल पहले एक साक्षात्कार में कहा था कि रामसेतु ज्वालामुखी क्षेत्र में है जिसके नीचे गर्म स्थान हैं और इसका निर्माण अब से लगभग 7,000 साल पहले हुआ था। यह कहते हुए कि इसका ऊपरी भाग ‘मानव निर्मित संरचना प्रतीत होता है’ उन्होंने बताया कि मूल रूप से यह बंगाल की खाड़ी और हिंद महासागर को अलग करने वाला प्राकृतिक विभाजन है, इसलिए दोनों तरफ की भूवैज्ञानिक विशेषताएं अलग-अलग हैं।
18,000 साल पहले के हिमयुग के दौरान समुद्र का स्तर ग्लेशियरों के पिघलने के कारण हुए वर्तमान स्तर से 130 मीटर नीचे था। लगभग 7,300 साल पहले, एक बड़ी बाढ़ के कारण समुद्र का स्तर आज की तुलना में चार मीटर अधिक हो गया था। लेकिन भारत और श्रीलंका को जोड़ने वाला बांध केवल बालू का टीला नहीं है। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) ने 2004-05 में सेतु समुद्रम नहर परियोजना प्राधिकरण के लिए सर्वेक्षण किया। संरचना के करीब पहुंचने पर उन्हें भूस्तर में अचानक उभार मिला। यह 10-12 मीटर से अचानक 1.5 मीटर ऊंचा हो गया था। इस स्थान के उत्तरी पक्ष में अशांत पाक खाड़ी है जो चक्रवातों से ग्रस्त रहती है और शांत दक्षिणी पक्ष मन्नार की खाड़ी है जो कि प्राचीन है। इसमें मूंगे (प्रवाल) के लगभग 21 द्वीप हैं। जीएसआई ने लगभग 180-200 मीटर गहराई में कुछ स्थान पर छेद किए थे, लेकिन लगता है कि उसने शीर्ष भाग की जांच नहीं की थी।
नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ ओशनोग्राफी ने इस सेतु संरेखण के साथ लगभग 10 स्थानों पर तली की ओर गहरे छेद किए; चार द्वीपों के किनारे (जहां रेत स्थान बदलती रहती है) और छह पानी में। इसमें पाया गया कि हर जगह, शीर्ष छह मीटर से नीचे मूंगा, चूनामिश्रित बालू पत्थर और बड़े आकार के पत्थरों के मिश्रण के ऊपर और नीचे समुद्री रेत थी। इससे नीचे चार-पांच मीटर तक फिर से ढीली रेत थी और उसके बाद कठोर संरचनाएं।
डॉ. बद्रीनारायणन के अनुसार इससे साबित होता है कि यह संरचना प्राकृतिक नहीं है। मूंगे केवल चट्टानों और कठोर सतहों पर पाए जाते हैं। लेकिन सेतु पर मूंगे और बड़े पत्थरों के नीचे समुद्र का स्तर कम होने पर बनने वाली ढीली रेत थी। गोताखोरों को यहां जो शिलाखंड मिले वे सामान्यत: जमीन पर पाए जाते हैं। शिलाखंड समुद्री संरचना नहीं हैं। किसी ने इस संरचना को उपयोग लायक बनाने के लिए यहां शिलाखंड डाले थे। रामेश्वरम, पांबन और तूतीकोरिन क्षेत्र में भूमि पर पुराने मूंगे देखे जा सकते हैं, क्योंकि लगभग 7,300 से 5,800 वर्ष पहले समुद्र का स्तर आज से लगभग चार मीटर अधिक था। फिर 5,800 से 5,400 साल पहले समुद्री स्तर गिर गया, और 5,400 से 4,000 साल पहले, यह आज की तुलना में दो मीटर अधिक ऊंचा हुआ। इसलिए, मूंगे (प्रवाल) हमें दो स्तरों पर मिलते हैं। अब से 5,800 से 5,400 साल पहले, या लगभग 4,000 साल पहले, किसी ने सभी शिलाखंडों को सेतु तक पहुंचाया। सभी हवाई चित्रों में सेतु को दो से तीन किमी चौड़ा दिखाया गया है। यह पूर्वी तरफ से ऊंचा है, इसलिए किसी ने उठे हुए हिस्से का फायदा उठाते हुए पानी पार करने के लिए पत्थर गिराये थे।
आसपास मिले प्रमाण
रामेश्वरम द्वीप और पांबन में रेलवे पुल के दोनों किनारों पर, ऐसी संरचनाएं और उभरे हुए मूंगे देख सकते हैं, जिनसे लगता है कि वहां उत्खनन किया गया था। चूंकि कोई भी 30 किमी तक सामग्री को जमा करके नहीं रखेगा, इसलिए कहा जा सकता है कि यह काम समुद्र पार करने के लिए किया गया था। ये शिलाखंड ठोस और कम वजन वाले हैं। यह क्षेत्र भूगर्भीय और भू-विवर्तनिक रूप से संवेदनशील है। खुदाई में 60 से 70 डिग्री सेल्सियस के गर्म सोतों का पता चला। श्रीलंका में आने वाले भूकंप भारत में भी महसूस किए जाते हैं, जिसका अर्थ है कि वहां एक बड़ी भ्रंश-रेखा है। उत्तर और दक्षिण की ओर पुराने ज्वालामुखियों के अवशेष हैं। इसलिए, यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि यहां जलमार्ग को चौड़ा करने से भ्रंश-रेखा सक्रिय हो सकती है और इससे भूकंपीय गतिविधि या बड़े भूकंप शुरू हो सकते है। यह सर्वविदित है कि यह सेतु बंगाल की खाड़ी के चक्रवातों और सुनामियों को रोकता है अन्यथा उनसे दक्षिणी भारत तबाह हो सकता है।
राम के अस्तित्व को नकारा था कांग्रेसनीत सरकार ने
सेतुसमुद्रम परियोजना 2005 में संप्रग सरकार के घटक द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम की पहल पर शुरू की गई थी। इसके तहत तल पर खुदाई की प्रक्रिया 2006 में शुरू हुई। इस पर रामसेतु को नष्ट किए जाने के विरोध में हिंदुत्वनिष्ठ नेताओं ने तुरंत राष्ट्रपति से मुलाकात की। अक्तूबर 2008 में केंद्रीय मंत्रिमंडल में द्रमुक की ओर से शामिल मंत्री टी.आर. बालू ने उच्चतम न्यायालय में एक हलफनामा दायर किया था जिसमें अन्य बातों के अलावा दावा किया गया था कि लंका से वापसी के समय स्वयं राम ने रामसेतु को नष्ट कर दिया था। इस हलफनामे के बारे में न तो संस्कृति मंत्रालय को सूचित किया गया था और न ही नौवहन और सड़क परिवहन मंत्रालय को।
इसके बाद, बात बिगड़ने से बचाने के कांग्रेस के प्रयासों पर तत्कालीन भाजपा प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर ने कहा, ‘पहले हलफनामे में सरकार ने कहा था कि राम के अस्तित्व का कोई सबूत नहीं है। इस पर फैले व्यापक जनरोष पर यह हलफनामा वापस ले लिया गया था। इसके बाद दायर किए गए हलफनामे में सरकार ने कहा कि यह विश्वास का विषय है और इस पर अदालत जो चाहे फैसला ले। अब वे कह रहे हैं कि राम ने स्वयं रामसेतु को नष्ट कर दिया, जिसका अर्थ है कि वे स्वीकार कर रहे हैं कि राम का अस्तित्व था।
वाल्मीकि रामायण में उल्लेख
तमिल स्रोत राष्ट्रीय धरोहर के रूप में रामसेतु के महत्व को स्वीकार करते हैं। विद्वान जयश्री शरनाथन का मानना है कि वाल्मीकि रामायण में राम द्वारा सेतु निर्माण से ठीक पहले जलडमरूमध्य (दो समुद्रोंख् खाड़ियों को जोड़ने वाली प्रणाली) में सुनामी-प्रभाव का उल्लेख किया गया है, और संभवत: वही उस समय के आसपास दक्षिणी मदुरै के जलमग्न होने का कारण था। राम और वानर समुद्रतट पर पहुंच कर समुद्र से रास्ता पाने के प्रयास में तीन दिन तक इंतजार करते रहे, लेकिन इस प्रयास में विफल रहने पर राम ने पानी को चीरने के लिए एक तीर चलाया (वाल्मीकि रामायण 6:4)। इसके बाद पानी में बहुत अधिक उथल-पुथल होने के बाद सागर (समुद्र का देवता) प्रकट हुआ और उसने पानी को रोके रखने का वचन दिया ताकि वानर पुल का निर्माण कर सकें, जो उन्होंने पांच दिन में पूरा किया था।
शरनाथन रामायण की घटनाओं को उस काल का मानते हैं जब दक्षिण में तमिल पांडियनों का साम्राज्य था। वाल्मीकि रामायण में पांडियन राजधानी कावतपुरम का उल्लेख है। इसके अलावा, इसकी पुष्टि पांडियनों के सिनामनूर ताम्रपत्रों में रावण का संदर्भ होने से भी होती है। ताम्रपत्रों में उल्लेख है कि पांडियन लोग अक्सर रावण से भिड़ जाते थे और उसे संधि करने के लिए बाध्य कर देते थे या किसी कारणवश उससे समझौता करते थे। इससे साबित होता है कि रावण कोई पौराणिक चरित्र नहीं था और रामायण का घटनाक्रम वास्तव में घटित हुआ था। शरनाथन का अनुमान है कि साहित्यिक और महाकाव्यीय प्रमाणों के अनुसार रामायण काल 5550 ईसा पूर्व के बाद का है जब पांडियन राजाओं की राजधानी कावतम थी। प्रो. पुष्कर भटनागर खगोल वैज्ञानिक गणनाओं के आधार पर रामायण का काल 5114 ईसा पूर्व रखते हैं।
जब सुग्रीव ने हनुमान और वानरों को दक्षिण दिशा में सीता की खोज करने के लिए कहा, तो उन्होंने कहा कि कावेरी नदी पार करने के बाद ऋषि अगस्त्य के निवास स्थान और ताम्रपर्णी नदी को पार करने के बाद वे पांड्यों के कावतम पहुंचेंगे (वा. रा. अ. 41-19)। तत्पश्चात वे दक्षिणी महासागर तक पहुंचेंगे और महेंद्र पहाड़ियों से रावण की लंका तक पहुंच सकते हैं। कावतम 3500 साल पहले तीसरे जलप्रलय में डूब गया था।
राम सेतु अपने काल की अभियांत्रिकीय उपलब्धि थी। मंदोदरी को जब पुल के बारे में पता चला तो वह जान गई थी कि रावण आसन्न युद्ध हार जाएगा: ‘जिस दिन वानर महावीरों ने महासागर पर पुल बना लिया, उसी दिन मैंने समझ लिया था कि राम कोई साधारण नश्वर नहीं हैं।’ (वा.रा.6-111-11)
विविधताओं वाली खाड़ी
रामसेतु 1989 में भारत सरकार द्वारा दक्षिण एशिया के सबसे बड़े संरक्षित समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में स्थापित मन्नार की खाड़ी के समुद्री जीवमंडल के भीतर आता है। इसमें स्पर्म ह्वेल और डॉल्फिनों समेत जानवरों और वनस्पति की 3,600 प्रजातियां हैं, प्रवाल की 117 श्रेणियां (अकेले भारतीय जल में) और अनेक प्रकार की मछलियां तथा समुद्री जीवों की किस्में हैं। श्रीलंका की ओर समुद्री जीवन और भी समृद्ध है। कल्पित प्रायद्वीप के बार रीफ में प्रवाल की 156 और मछलियों की 283 प्रजातियां हैं; दो अन्य प्रवाल भित्ति प्रणालियां मन्नार और जाफना के आस-पास के समुद्रतल में हैं। मन्नार से सटे क्षेत्र में सीप, भारतीय चैंक और सी-कुकुम्बर के विशाल भंडार हैं।
अल-बरूनी का आख्यान
रामसेतु का शानदार इतिहास है और सदियों से यह गैर-हिंदुओं को भी प्रभावित करता रहा है। 11वीं शताब्दी के विद्वान अल-बरूनी ने कहा, ‘सेतुबंध का अर्थ है समुद्र का सेतु। यह दशरथ के पुत्र राम की बनाई समुद्री दीवार है, जो उन्होंने महाद्वीप से लंका राजमहल तक बनाई थी। वर्तमान में इसमें अलग-थलग पहाड़ हैं, जिनके बीच महासागर बहते हैं’। शुरुआती यूरोपीय यात्रियों ने उल्लेख किया है कि भाटा की स्थिति में सेतु का उपयोग श्रीलंका तक पहुंचने के लिए किया जा सकता है। 1893 के मद्रास प्रेसिडेंसी गजेटियर में दर्ज मंदिरों के शिलालेखों और यात्रा वृत्तांतों के अनुसार ऐसा करना 1799 तक संभव था, जिसके बाद अशांत समुद्र और बदलते ज्वार-भाटा क्रम ने इसे मुश्किल बना दिया। दिलचस्प बात यह है कि सिंहल मानते हैं कि अशोक के पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा पुल पर चल कर वहां पहुंचे थे। नासा के उपग्रहीय चित्र समुद्र तल पर एक खंडित पुल दिखाते हैं, जिसके गजब के घुमाव और संरचना से पता चलता है कि वह मानवनिर्मित है और लगभग 17,50,000 वर्ष पुराना है, जो श्रीलंका में मानव बसाहट के शुरुआती लक्षणों के साथ मेल खाता है। मार्च 2012 में तमिलनाडु की तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता ने तत्कालीन प्रधानमंत्री से आग्रह किया था कि इसके ‘ऐतिहासिक, पुरातात्विक और विरासती महत्व’ के कारण रामसेतु को राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया जाए।
पूर्व की परियोजना
भारतीय नौसेना के कमांडर अल्फ्रेड डी. टेलर ने 1860 में भारत के पश्चिम और पूर्वी तट के बीच का नौकायन मार्ग छोटा करने के लिए पाक जलडमरूमध्य में एक नौवहन मार्ग का विचार पेश किया था। 1955 में भारत सरकार ने डॉ. ए.आर. मुदलियार के नेतृत्व में यह जांचने के लिए एक समिति बनाई थी कि क्या मन्नार में एक मार्ग बनाने से वास्तव में नौकायन दूरी में लगभग 780 किमी और जहाजों के नौकायन समय में 30 घंटे का समय बचाया जा सकता है। समिति ने कहा कि परियोजना व्यवहार्य थी, लेकिन इसके बजाय उसने एक भूस्थलीय मार्ग स्थापित करने का आग्रह किया, क्योंकि सेतु को काट कर बनने वाले मार्ग में रेत के टीलों और अन्य नौवहन खतरों का सामना करना होगा। इस संस्तुति ने परियोजना को समाप्त कर दिया। श्रीलंका की राष्ट्रीय जल संसाधन अनुसंधान और विकास एजेंसी ने चेतावनी दी थी कि चैनल को चौड़ा करने से बंगाल की खाड़ी से मन्नार की खाड़ी ओर पानी का प्रवाह बढ़ेगा, और अंतर्देशीय जल संतुलन तथा मन्नार पारिस्थितिक तंत्र संकट में पड़ेगा। मछुआरों ने भी इस परियोजना का विरोध किया क्योंकि इस तरह के संकीर्ण जलमार्ग में नौवहन और मछली पकड़ने का काम एक साथ नहीं हो सकता।
इसके अलावा, सन् 1860 से 2000 के आंकड़ों से पता चला है कि चक्रवात हर चार साल में इस क्षेत्र से टकराते हैं और तट को बुरी तरह से नष्ट कर देते हैं। 2004 में आई सुनामी जैसी सुनामियां और भी घातक हो सकती हैं। परियोजना पाक खाड़ी के अवसादन व्यवहार का अध्ययन करने में विफल रही जिसमें जहां खुला समुद्र लगातार रेत लाता है जिससे चैनल को वर्ष के ज्यादातर हिस्से में बंद रखना पड़ सकता है। स्वेज नहर को भूमि काट कर बनाया गया था, लेकिन उसे भी हर साल साफ करने की जरूरत पड़ती है। नौवहन विशेषज्ञों का कहना था कि ऐसी कोई नहर आधुनिक काल के बड़े व्यापारिक जहाजों या तेल टैंकरों के लिए अनुपयोगी होगी क्योंकि वे अपनी गति घटाने, र्इंधन बदलने और नहर शुल्क तथा सहायता के लिए पायलट नौवहन की सहायता लेने जैसी अतिरिक्त लागतें उठाने की तुलना में श्रीलंका के चारों ओर का खुला समुद्री मार्ग अपनाना पसंद करेंगे ।
2012 में, आर.के. पचौरी समिति ने चेतावनी दी थी कि मन्नार खाड़ी में नौवहन के कारण वहां तेल और अन्य प्रदूषक फैल सकते हैं जिससे नरम-प्रवाल भित्तियों और समुद्री कछुओं को नुकसान पहुंच सकता है, और मछुआरों की आजीविका के अलावा डगोंग्स और हरे कछुए जैसे समुद्री जीवों का जीवन खतरे में पड़ सकता है। इस समिति ने परियोजना को ‘आर्थिक और पारिस्थितिक दोनों कोणों से अनुपयुक्त’ माना।
2014 में भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनाव घोषणापत्र में वादा किया था कि सेतु को ‘हमारी सांस्कृतिक विरासत के हिस्से’ के रूप में ही नहीं, वहां उपलब्ध विशाल थोरियम भंडार के रणनीतिक मूल्य के कारण भी संरक्षित किया जाएगा। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान अब इस अमूर्त विरासत का गुणात्मक मूल्य स्थापित कर सकते हैं।
https://www.panchjanya.com/Encyc/2021/2/8/Science-of-faith.html
English version
The Archaeological Survey of India (ASI) is set to undertake the first scientific investigation of Rama Setu, the isthmus between India and Sri Lanka that enabled Rama’s army to cross the ocean and reach Ravana’s kingdom to rescue his wife. The Setu is a 48-km long chain of corals and shoals that scholars believe is a natural formation that was augmented by human hand. The ASI believes that studying this underwater formation will “help determine the age of the Ramayana period.” The study will be undertaken by the CSIR-National Institute of Oceanography (NIO), Goa, using radiometric and thermo luminescence dating for geological timescale.
Prof. Sunil Kumar Singh, director, NIO, said the three-year probe, to begin in March 2021, aims to determine if Ram Setu is man-made and establish its age scientifically. The results will be verified and co-related with information in Ramayana and other scriptures. The age of the sediments will be determined via Carbon dating techniques. Investigations will cover a range of scientific techniques such as material composition, sub-surface structure, and excavation of remnants or artifacts, if any, from the site. Underwater photography will help determine any habitation remains in the area. Later, scientists will drill into the structure, gather samples and undertake laboratory-based studies.
Prof Singh noted that some scriptures mention wooden slabs along the Setu. If these existed, they would have fossilised by now, and the team will search for them. As the sea bed around the Setu is shallow, barely three to four metres deep, it should be easy to study the structure. This fact is one of the major arguments against dredging the area to accommodate large modern ships.
Dr Badrinarayanan, former director, Geological Survey of India, stated in an interview (Rediff.com, July 31, 2007) that Ram Setu lay in a volcanic region with hot spots underneath; it was constructed around 7000 years Before Present (BP). Asserting that the top portion “appears to be a man-made structure”, he explained that it is originally a natural divide separating the Bay of Bengal and Indian Ocean, so the geological characteristics are different on either side.
During the Ice Age around 18,000 years ago, the sea level was lower by 130 metres than at present, due to de-glaciation. Around 7,300 years ago, major flooding caused the sea level to rise 4 metres higher than what it is today. But the bund linking India and Sri Lanka is not a mere sand dune.
The Geological Survey of India conducted surveys for the Sethu Samudram Canal project authorities in 2004-05. On approaching the structure, they found a sudden rise in the land level: from 10-12 metre it rose 1.5 metre. The northern side is the turbulent Palk Bay that is prone to cyclones, and the tranquil southern side is the Gulf of Mannar which is pristine. It hosts nearly 21 islands full of corals. The GSI did some drilling at the deeper level of about 180-200 metres, but seems not to have probed the top portion.
The National Institute of Oceanography (NIOT) dug around 10 bore holes along the Adam’s Bridge alignment; four were along the islands (where sands keep shifting) and six in the water. It found that everywhere, below the top six metres, there were marine sands on top and below a mix of corals, calcareous sandstones, and boulder-like materials. Further below, up to 4-5 metres, again there was loose sand and after that, hard formations.
This, according to Dr Badrinarayanan, shows the structure is not natural. Corals are found only on rocks and hard surfaces. But on the Setu, below the corals and boulders, were loose sand, and on top of the loose sand, formed when the sea level was low, divers found boulders, which normally occur on land. The boulders are not a marine formation. Somebody dumped the boulders to use the structure as a causeway.
In Rameswaram, Pamban, Tuticorin region, one can see old corals on the land, because the sea level was 4 metres higher at the time they were formed 7,300 to 5,800 years ago. Then, from 5,800 to 5,400 years ago, the sea level fell, and from 5,400 to 4,000 years ago, it rose 2 metres higher than it is today. Hence, we find corals at two levels.
Between 5,800 to 5,400 years ago, or around 4,000 years ago, somebody brought all the boulders to the Setu. All aerial pictures show the Setu as 2 to 3 km wide. It is high on the eastern side, so someone took advantage of the raised portion and dumped the boulders to cross the waters. On the Rameswaram islands and in Pamban, on both sides of the railway bridge, one can see such formations and raised corals, which suggest that quarrying was done there. Since no one will dump materials for 30 km, the task was undertaken to cross the sea. The boulders are compact and light.
The region is geologically and geo-tectonically sensitive. Drilling revealed hot springs of 60 to 70 degrees Celsius. Earthquakes in Sri Lanka are felt in India, which means a major fault-line runs there. Towards the north and south, are remnants of old volcanoes.
It seems obvious, therefore, that widening the water channel could activate the fault-line and trigger seismic activity or earth quakes. It is well known that cyclones or tsunamis in the Bay of Bengal are contained by the Setu, or they would devastate southern India.
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Tamil sources uphold the significance of Ram Setu as national heritage. Scholar Jayasree Saranathan observes that Valmiki Ramayana mentions a tsunami-impact at the isthmus just before Rama built the Setu, and probably caused the submergence of Southern Madurai around that time. Rama and the Vanaras reached the shore (VR 6:4) and waited for three days to find an opening in the ocean, failing which Rama shot an arrow to part the waters. After much tumult in the waters, Sāgara (God of the Sea) appeared and promised to hold back the waters so that the Vanaras could build the bridge, which they did in five days.
Saranathan puts Ramayana events at the time when the old Tamil kingdom of Pandyans was ruling in the South. Valmiki Ramayana mentions Kavatapuram, capital city of the Pandyas; there is also a corroboratory reference to Ravana in the Sinnamanur copper plates of the Pandyans. The copper plates mention that the Pandyans often clashed with Ravana and made him seek truce, or negotiated with him for some reason. This proves that Ravana was not a mythical character, and that Ramayana happened. Saranathan estimates that per literary and epigraphic evidences, the Ramayana period must have happened after 5550 BC when Kavatam was the capital of Pandyan kings. Prof Pushkar Bhatnagar puts the date at 5114 BC, based on astronomy-inputs of Ramayana.
When Sugriva told Hanuman and the vanaras to search for Sita in the southern direction, he said that after crossing river Kaveri, Agastya’s abode and river Tamraparani, they would reach the Kavatam of Pandyas (VR, ch. 41-19). Thereafter they would reach the southern ocean and could reach Ravana’s Lanka from Mahendra hills. Kavatam was submerged in the third deluge 3500 years ago.
Ram Setu was an engineering feat of its time. Mandodari knew Ravana would lose the coming war when she learnt about the bridge: “The day when the terrific monkeys built a bridge on the great ocean, that day itself I believed that Rama was not an ordinary mortal.” (VR, 6-111-11)
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Rama Setu has an illustrious history and has fascinated non-Hindus for ages. The 11th century scholar Al-Beruni observed, “Setubandha means bridge of the ocean. It is the dike of Rama, the son of Dasarath, which he built from the continent to the castle Lanka. At present it consists of isolated mountains between which the ocean flows”. Early European travellers noted that the Setu could be used to reach Sri Lanka at low tide. Temple epigraphs and travelogues recorded in the Madras Presidency Gazetteer of 1893 said this was possible up to 1799, after which the rough sea and changing tide patterns made it difficult. Interestingly, the Sinhalas believe that Ashoka’s son Mahinda and daughter Sanghamitra walked over the bridge.
NASA satellite images reveal a broken bridge on the ocean floor, with unique curvature and composition that reveals it to be man-made, about 1,750,000 years old, coinciding with the first signs of human habitation in Sri Lanka. In March 2012, Tamil Nadu Chief Minister Jayalalithaa urged the Prime Minister to declare it a national monument on account of its “immeasurable historical, archaeological and heritage value”.
Rama Setu falls within the Gulf of Mannar Marine Biosphere, set up by the Government of India in 1989 as South Asia’s largest protected marine ecosystem. It has 3,600 species of plants and animals, including sperm whales and dolphins, 117 species of corals (in Indian territorial waters alone), and many varieties of fish and crustaceans. The marine life on the Sri Lankan side is even richer. The Bar Reef off the Kalpitiya peninsular has 156 species of coral and 283 fish; two other coral reef systems adorn the seabed around Mannar and Jaffna. There are huge banks of oysters, Indian Chank and Sea Cucumbers adjacent to Mannar.
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Commander Alfred D. Taylor of the Indian Marines mooted the idea of a shipping channel across the Palk Strait in 1860, to shorten the route for ships sailing between the west and east coast of India. In 1955, the Government of India appointed a Committee headed by Dr. A.R. Mudaliar to examine if a channel at Mannar could really save nearly 780 km of sailing distance and 30 hours of sailing time for ships. The committee said the project was feasible but urged an overland passage instead, as a channel cutting through the Setu would suffer from shifting sandbanks and navigational hazards. This effectively negated the project.
Sri Lanka’s National Aquatic Resources Research and Development Agency warned that widening the channel would increase the water flow from the Bay of Bengal to the Gulf of Mannar, and disturb the inland water balance and Mannar eco-systems. Fishermen opposed the project as shipping and fishing cannot coexist in such a narrow waterway.
Moreover, data from 1860 to 2000 showed that cyclones hit the region every four years and severely erode the coast. Tsunamis such as the one in 2004 can be even more lethal. The project failed to study the sedimentation pattern of Palk Bay, where the open sea constantly brings sand that could keep the channel shut for much of the year. The Suez Canal was cut through land, but needs annual desiltation. Naval experts opined that the channel would be unviable as the large modern-day merchant ships or oil tankers would not like to reduce speed, switch fuels, and incur extra costs like canal charges and pilot navigation assistance to negotiate it, but would prefer the open seas around Sri Lanka.
The Setusamudram project was launched in 2005 at the behest of the DMK, an important partner in the UPA government; dredging began in 2006. Hindu leaders immediately met the President of India to protest against the destruction of the Rama Setu. In October 2008, T.R. Baalu, DMK minister in the Union cabinet, filed an affidavit in the Supreme Court, claiming, inter alia, that the Rama Setu was destroyed by Rama himself while departing from Lanka. Neither the Culture Ministry nor the Shipping and Road Transport Ministry were informed about the submission.
As Congress went into damage control, BJP spokesman Prakash Javadekar said, “In the first affidavit, the government said there is no proof of Rama’s existence. Then there was widespread anger and it withdrew the affidavit. In the next one, it said it was a matter of faith and was up to the court to decide. Now they are saying that Rama himself destroyed the Rama Setu, which means they are admitting that Rama existed.”
In 2012, the RK Pachauri committee warned that shipping in the Gulf of Mannar could cause oil spills and pollution, damaging the soft-coral reefs, marine turtles, and endangered sea animals such as Dugongs and Green Turtles, besides affecting the livelihoods of fishermen. It deemed the project “unviable both from the economic as well as ecological angles.”
In 2014, the Bharatiya Janata Party promised in its election manifesto that the Setu would be protected as “part of our cultural heritage” and because of the strategic value of its vast thorium deposits. The qualitative value of this intangible heritage may now be established by the Archaeological Survey of India and the National Institute of Oceanography.
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